*क्या खोया ,क्या पाया?*
ज़िन्दगी के इस सफर में
चले तो जा रहे है शौक से सब,
रफ्तार है कुछ ज्यादा ही माना
धुंधला सा दिखता है बचपन भी अब ।
पर तनिक ज़रा रुको तो
ठहरो पल भर के लिए,
मुड़ कर पीछे देखो तो एक बार ,
दिखा
क्या खोया क्या पाया?
याद है
बचपन की वो मीठी नींद अब खो दी
जो माँ की लोरी के बिना भी आती थी
फिर भी रोते थे,
जिद्द करते थे कि
सुना दे माँ एक बार चंदा मामा की कहानी फिर से।
अब तो चांद में मामा की जगह
दिखता है एक अकेला "मैं"
कैसे उन अंधेरी रातो में
उन करोड़ों के तारों के बीच भी
अकेला है गुमसुम आसमान में
जैसे मैं हु यहाँ इस करोड़ों की भीड़ में।
हाँ
खो दिया वो मामा मैने
और
पा लिया उस अंधेरे में खुद को
फिर से खोने के लिए शायद।
याद है
वो बेफिक्र हो कर मस्त घुटने के बल
पूरे घर मे घूमते थे और कुछ गिरा देने पर
या शरारत करने पर
बस एक भीनी सी मुस्कान
देकर लोगो का दिल जीत लेते थे।
हाँ खो दिया अब वो हुनर मैंने कही ,
जहाँ बिना बहस के अब बात नही होती,
भूल गई हु अब मैं बचपन अपना शायद ।
पा लिया है वो गुस्सा जो असभ्य तो बनाता है मुझे
पर सोचती हूँ फिर ,सभ्य की दुनिया कहाँ है ये?
अरे,क्या याद है,
विष अमृत और छुपन छिपाई में कैसे यू ही
शामें बीत जाती थी और वक्त का पता भी न चलता था,
कैसे किसी पड़ोसी के घर पूरे दिन बैठ जाते थे
और कुछ यादें बनाते थे।
क्या पता था तुम्हे भी की एक दिन महज़
यादे ही राह जाएंगी,लोग नही।
क्या पता था कि एक दिन
खुद को ही न ढूंढ़ पाओगे इस भीड़ में
चाहे कितना ही खेला हो छुपन छुपाई बचपन मे।
हाँ, खो दी वो बेफिक्री मैंने,
जो बचपन मे थी मेरे,
मिली अब ज़िम्मेदारिया कंधो पर
संग कुछ यादे भी जो साथ रहेंगी उम्रभर,
लीग हो न हो।
अब ये ना कहना कि याद नही वो सुबह
जो पतंगों से शुरू होती थी,
या वो शाम जिसमे दिन भी कम पड़ जाता था
पर पटाखे नही।
याद है ना वो गणतंत्र दिवस के लड्डू जो दोनों हाथ मे भर भर के लाते थे
और वो होली जो सिर्फ पिचकारी के लिए मनाते थे तब,भांग के लिए नही।
दोस्ती में किताब से लेकर ताजोस सब कुछ बांटा ,
जब शायद मतलबी का मतलब भी नही आता था,
न मतलब था किसी के अच्छे होने से,
कटट्टी और मीठी में ही पूरा बचपन बस यूं ही निकल जाता था।
तब सब अच्छे थे,
कोई बुरा नहीं।
कहाँ गया वो समय,
खो दिया शायद,
खो दिया वो बचपन,
खो दी वो मासूमियत,
खो दिया वो सुकून ,
हा खो दिया
और मिला क्या बदले में,
ये इंसान जो इंसान ही नही
जिसे मतलब से अब मतलब है
जो त्योहार नही मनाता
जो लोगो से भागता है
जो अंधेरे में रहता है
सुकून की तलाश में।
जो न चाँद है,ना उसकी चांदनी।
एक दाग है बस।
जो न गुस्सा है ना सुकून।
एक टीस हैं बस।
जो न खेल है ,ना खिलाड़ी
एक खिलौना है बस।
अरे
जो न जी रहा है,ना मार रहा है
ज़िंदा है बस।
देख लिया क्या खोया तुमने?
नही?
कभी आईना देख लेना जाकर फिर
पता चलेगा
क्या खोया
क्या पाया।